सरसिज पल्लव - सी चंचल
कोमल कर में अंगुलियाँ
ज्यों नचा रहा हो मारुत
अधखिली कुसुम की कलियाँ ।।७६।।
उस कनक लता काया में
थे पीन पयोधर फल - से
हाँ, उन्हें देखकर होते
थे मेरे प्राण विकल - से ।।७७।।
दो सजे पयोधर घट - से
मद भरे, कठिन थे उभरे
कोई न सम्हल पाता था
ऐसे थे उनके नखरे ।।७८।।
सर सरिस उदर में उसके
थी भँवर संकुचित त्रिवली
जिसकी हलकी झलकी से
उर पर गिरती थी बिजली ।।७९।।
वह कलभ शुण्ड क्या तुलती
जाँघों में मृदुल सरलता
देखा नितम्ब पर रखते
कर-किसलय आप फिसलता ।।८०।।