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अन्तर्दाह / पृष्ठ 24 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

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यह सृष्टि स्वार्थ की प्यारी
स्वार्थी हैं अम्बर - तारे
वे लुप्त अतीन्द्रिय अनुभव
हैं बने स्वार्थमय सारे ।।११६।।

जी भरकर रे, मन हँस ले
है विकट परीक्षा बाकी
प्रतिमा प्रतिनिधि बन बैठी
लेकिन अंतर्हित झाँकी ।।११७।।

रे, देख पूर्व में आता
वह अरुण प्रभात सुहाना
खग-कुल के कुल-कुल सुर में
स्मृतियाँ गातीं गाना ।।११८।।

वह संधि और यह बिछुड़न
स्मिति वह और रुदन यह
वह मधुर प्रभात, बिलखता
सावन का नील गगन यह ।।११९।।

तेरे समान जो कुछ थी
वह वस्तु विश्व से प्यारी!
तेरे विछोह के कारण
उठ गयी सृष्टि से सारी ।।१२०।।