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समय / संजय शाण्डिल्य
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एक दिन
बात-बात में
तुमसे कहा था मैंने
कि जब से हम साथ हैं
मैंने कुछ भी नहीं लिखा है
मेरे जेहन में
कविता नहीं आती
तुमने उस दिन
मेरा हाथ थामकर कहा था
आएगा समय लिखने का
एक दिन सब दुरुस्त हो जाएगा
आज
इतने वर्षों बाद
वाक़ई
सब दुरुस्त हो गया है
अब तुम
मेरे साथ नहीं हो
मेरे साथ
अब रहता है
समय का अपार अन्धकार
जिसमें मैं लिखता हूँ
जिससे मैं लिखता हूँ ।