नकारनेवाले / संजय शाण्डिल्य
वे नकारनेवाले हैं
एक शब्द ही से नहीं
एक अक्षर से भी नकारनेवाले
उनके हाथ में
न तलवार है न कुल्हाड़ी
ज़ुबान ही की धार से
वे काटते हैं द्वन्द्व के पाँव
भ्रम की दीवार को पल में ढहा देते हैं
जैसे वे नकारते हैं
नकारने की हर बात
मसलन —
घृणा के फण को
कुचलते हैं साहस के नकार से
ठीक वैसे
वे स्वीकारते भी हैं
स्वीकारने की हर बात
मसलन —
स्नेह के मोती को
धारते हैं
हृदय-सीप में प्यार से
उनकी फिज़ाओं में
चटक रंग कम होते हैं
हरा और लाल — जैसे रंग तो होते ही नहीं
उनकी भावनाओं में
पानी का रंग होता है
और साहस में आग का
बेहद कम हैं इस भवारण्य में वे
पर निकलते हैं तो शेरों की तरह निकलते हैं
भेड़ियों के पीछे चलनेवाली भेड़ें वे नहीं हैं
वे पहाड़ हैं महानता के
दुनिया के बेहद ऊँचे-ऊँचे पहाड़
पर टूटते हैं साज़िशों से कभी-कभार
और प्यार से बार-बार...लगातार...