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खुरदुरी पाँखुरी-पाँखुरी / ओम नीरव

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क्या हुआ कुछ कहो वाटिका के सुमन,
हो गयी खुरदुरी पाँखुरी-पाँखुरी।

कौन से देश से गर्म पछुवा चली,
दाल की नव कली अधखिली रह गयी।
गीतिका एक स्वच्छंद नाधुमास की,
पाँखुरी के आधार पर सिली रह गयी।
कुंज-वन में न आयी सुरभि-राधिका,
रो पड़ी मन-किशन की सृजन-बाँसुरी।

है अनिल में अनल, लालिमा में छुपी-
कालिमा, गीत में रव, सुमन में चुभन।
लग रहा है विहग को विहग बाज़-सा,
डस रही तरुवरों को लता की छुअन।
अब भरोसा नहीं मेघ-से दूत पर,
यक्षिणी जल रही बीच अलकापुरी।

झूँठ वाचाल है सत्य गूंगा हुआ,
बाहु-धन-बल बिना न्याय लाचार है।
भीड़ ही दे रही है दिशा देश को,
अब अनाचार ही लोक-आचार है।
हैं अँधेरों के घर आज शहनाइयाँ,
रश्मियाँ द्वार बांधे खड़ीं आँजुरी।

शीर्ष के फूल झुलसे खिले फिर नहीं,
पाँखुरी-पाँखुरी हो बिखर ही गये।
दूब के वृंत रौंदे तपे जो बचे,
जल मिला तो सजल हो निखर ही गये।
इसलिए दूब के नाम ही लिख गयी,
आज सारे चमन की छट माधुरी।
हो गयी खुरदुरी पाँखुरी-पाँखुरी।