भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साधो, भोरहे ते अंधियारु / सुशील सिद्धार्थ

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:27, 28 फ़रवरी 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुशील सिद्धार्थ |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साधो, भोरहे ते अंधियारु।
अंधरी कोठरिन का चालू है दिन का कारोबारु॥

भूंजी मछरी चलीं नदी का खूंटी खाइसि हारु।
लगा बैद का रोगु अजीरनु का करिहौ उपचारु॥

कुर्सी मिलतै खन द्याखौ तौ बदलि गवा ब्यौहारु।
उइ गउंवा का घूमि न द्याखैं जहां गड़ा है नारु॥

वोट लूटि कै उड़ैं गगन मा जनता झ्वांकै भारु।
अबहू स्वांचौ अबहू समझौ बढ़िकै देसु संभारु॥

उइ तौ चइहैं बंटे रहौ औ करति रहौ तुम मारु।
एका कइकै सबकी बिपदा टारि सकै तौ टारु॥