Last modified on 28 फ़रवरी 2019, at 20:54

सपनों का गांव / रामानुज त्रिपाठी

Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:54, 28 फ़रवरी 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामानुज त्रिपाठी |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ईगुर सी धूप और काजल सी छांव
एक प्यास लूट गई सपनों का गांव।

यद्यपि भुलावे में
लम्हें छले गए,
सांसो के पर्याय
बनने चले गए।
सूनी पगडंडी से थके-थके पांव
एक प्यास लूट गई सपनों का गांव।

पांव को फैलाए,
लम्बी चादर ताने
मसनद सवालों की
रखकर के सिरहाने
खामोशी लेट गई हर ठांव-ठांव
एक प्यास लूट गई सपनों का गांव।

हिस्से का लिए हुए
जख्मों का केवल धन,
अड़े हुए हैं अब तक
कुछ जिद्दी संबोधन
जिन्दगी की चैसर लगा करके दांव
एक प्यास लूट गई सपनों का गांव।