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ऐसा लगता है / जीवनानंद दास / मीता दास

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पता नहीं कौन हैं वे लोक जिन्होंने बड़े-बड़े कपाट हैं खोले,
वापस उन्होंने बन्द भी कर दिए हैं;
पता नहीं कहाँ कितनी दूर.... पसरी हुई है नीरवता
आकाश की सीमा रेखा तक।

तकिए पर सर रख कर जो सोए हुए हैं
वे सोए ही रहते हैं;
कल सुबह जागने के लिए ।
ये सब जो धूसर-सी हँसी है, कहानी, प्रेम और
चेहरे की लकीरें हैं
पृथ्वी के पत्थरों, कँकालों के अन्धकार में
घुले-मिले थे
धीरे-धीरे वे जाग रहे हैं;
पृथ्वी के अविचलित कँकाल को खिसका कर
मुझे ढूँढ़ निकालते हैं।

समस्त बँगाल की खाड़ी का उच्छवास जैसे थम जाता है;
मीलों तक यह धरती नीरव बनी रहती है !
जाने कौन कहता है:
अगर मैं इन सभी कपाटों को स्पर्श कर पाता
तब इस तरह की गहरी निस्तब्धता रात में ही स्पर्श कर आता...
मेरे ही कन्धों पर धुँधला-सा स्पर्श रखकर धीरे-धीरे मुझे जगा देता !

आँखे उठाता हूँ मैं
दूर गाढ़े अन्धकार के भीतर धूसर मेघों की तरह ही प्रवेश किया मैंने !
उस चेहरे के भीतर ही प्रवेश किया मैंने ।