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दोहे-6 / दरवेश भारती

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इक-दूजे के रक्त के, प्यासे मिले अपार।
हुए महाभारत-सदृश, आज कई परिवार॥

उजड़ीं गोदें अनगिनत, उजड़ गये शृंगार।
सदा रंग लाया यही, सीमाओं का प्यार॥

युग है ये अत्याधुनिक, इसका अजब स्वभाव।
हो दुष्कर्म समक्ष भी, इसे न आता ताव॥

अब समाज से उठ गया, पारस्परिक लगाव।
कुसमय में कोई भला, किसका करे बचाव॥

बात पते की कह गये, सन्त, महन्त अनेक।
सुख में सब अपने बनें, दुख में बने न एक॥

वही मनुज है धीर जो, रखे विपद में होश।
पाकर सुख-सम्पद जिसे, कभी न आये जोश॥

धन-दौलत के लोभ में, यों बिगड़े हालात।
सगा सगे को ही यहाँ, पहुँचाये आघात॥

कल तक जिस-जिसके लिए, लुटा दिया सर्वस्व।
बड़ा हुआ वह क्या कि अब, दिखा रहा वर्चस्व॥

दिखलाता था गर्व से, जो अपना स्वामित्व।
पल में उसका भाग्य ने, मिटा दिया अस्तित्व॥

इठलायी वय-वारि में, खूब प्राण की नाव।
जल-समाधि ली तब कि जब, दिया काल ने घाव॥