भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चल रे कहरबा / उमेश बहादुरपुरी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ४ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:40, 11 मार्च 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उमेश बहादुरपुरी |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ले चल रे कहरबा हमरा पियवा के देश।
एके गो सपनमा दिलवा कुच्छो न´् शेष।।
ले चल ....
उनखा से तनी हम तो नजरिया मिलइतूँ हल।
उनखा से तनी हम तो बोल बतिऐतूँ हल।
कोय तो पठा दे हमर पियवा के संदेश।।
ले चल ....
देखतूँ हल टुकुर-टुकुर उनखर सुरतिया।
देखतूँ हल टुकुर-टुकुर मोहनी मुरतिया।
ऊ काहे जाके बसला हें आंध्रा परदेस।।
ले चल ....
भला ऐसन बेदरदी के कउन समझाबे।
अनकर दरद जेकरा नजर न´् हे आबे।
ऊ तो हर पल लगाबे हमर दिलवा में ठेस।।
ले चल ....
दिलवा के बतिया हमर दिलवा में रह गेल।
कइलक बेदरदी ई हमरा से कउन खेल।
कहिया देखइतइ बहुरूपिया ऊ अपन भेस।।
ले चल ....