भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लता-1 / कीर्ति चौधरी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:16, 23 मार्च 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कीर्ति चौधरी |संग्रह=’तीसरा सप्त...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बड़े-बड़े गुच्छों वाली
सुर्ख़ फूलों की लतर :
जिसके लिए कभी ज़िद थी —
’यह फूले तो मेरे ही घर !’
अब कहीं भी दिखती है
किसी के द्वार-वन-उपवन,
तो भला लगता है ।
धीरे-धीरे
जाने क्यों भूलती ही जाती हूँ मैं !
ख़ुद को, और अपनापन !
बस, भूलती नहीं है तो
बड़े-बड़े गुच्छों वाली
सुर्ख़ फूलों की लतर :
जिसके लिए कभी ज़िद थी —
’यह फूले तो मेरे ही घर !’