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मेरे मन -आँगन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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मूक अब क्यों प्राण मेरे
कैसे कोई जानेगा?
एक निमिष का रहा अबोला
था प्राणों पर भारी।
स्वर सुने गुज़रा है अरसा
तब से अब तक
कितनी है लाचारी ,
मेरे मन -आँगन
केवल विष बरसा
भरी व्यथा
 कितनी होगी मन में
व्याकुलता जान लो
दर्द हमारे एक हैं
खोलो मन की आँखें
खुद ही पहचान लो।