न्यायमूर्ति-1 / संजय कुंदन
हे न्यायमूर्ति !
दूर से देखता रहता हूँ आपको
आपके शब्द कानों में गूँजते हैं
आकाशवाणी की तरह
आप हँसते हैं
तो लगता है पत्थर का
कोई देवता मुस्करा उठा हो
आप जब कहते हैं
सबको न्याय देंगे
तो मन भर आता है
कैसे आऊँ आप तक, हे देव !
आप तक आने का रास्ता
इतना आसान नहीं
आपको सबूत चाहिए
और मेरे पास सच के सिवा और कुछ नहीं
सच को सबूत में ढालना
मेरे जैसों के लिए
एक युद्ध से कम नहीं
सच और सबूत के बीच एक
गहरी खाई है श्रीमान
जिसमें उड़ते रहते हैं विशाल डैनों वाले कानून के पहरुए
जो संविधान नहीं, सिक्कों की सेवा में लगे रहते हैं
आए दिन एक लड़की सिर्फ़
इसलिए जान दे देती है कि
वह अपने साथ हुए बलात्कार को
बलात्कार नहीं साबित कर पाती
एक आदमी खुलेआम भीड़ के हाथों
मारा जाता है
पर उसकी हत्या
कभी हत्या नहीं साबित हो पाती
मि लॉर्ड, मैं डरता हूँ
कि कहीं मेरी बेडौल शक़्ल देख
आप पूछ न बैठें
मैं किस देश का वासी हूँ
एक बूढ़े पेड़ ने देखा है मेरा बचपन
और एक नदी को मालूम है मेरा पता
पर क्या आप उनकी गवाही मानेंगे ?