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जलते सहराओं में फैला होता / शकेब जलाली
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जलते सहराओं में फैला होता
काश मैं पेड़ों का साया होता
तू जो इस राह से गुज़रा होता
तेरा मलबूस ही काला होता
मैं घटा हूँ, न पवन हूँ, न चराग़
हमनशीं मेरा कोई तो होता
ज़ख़्मे उरियाँ तो न देखेगा कोई
मैंने कुछ भेस ही बदला होता
क्यूँ सफ़ीने में छिपाता दरिया
गर तुझे पार उतरना होता
बन में भी साथ गए हैं साए
मै किसी जाँ तो अकेला होता
मुझसे शफ़्फ़ाक है सीना किसका
चाँद इस झील में उतरा होता
और भी टूटकर आती तिरी याद
मैं जो कुछ दिन तुझे भूला होता
राख कर देते जला के शोले
ये धुआँ दिल में न फैला होता