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असहाय चीख़ें / बाल गंगाधर 'बागी'

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रक्त रंजित हथेली को माँ चूमकर
मुझे सीने से अपने लगाने लगी
धार पे धार आंसू का बहता रहा
दर्द ममता की स्याही से लिखाने लगी

भोलापन उत्पीड़न झेल सकता नहीं
और रक्त का ज्वार कोई उठाता नहीं
जो नन्हा परिन्दा-सा उड़ना हो सीखा
वो बाज सा शिकारी तो होता नहीं

जहाँ भी गयी हो यह कातिल नहीं है
यह जलते चिराग़ों की बाती नहीं है
जो जलके भी लोगों को जलना सिखाये
ये नज़र से नज़र तो मिलाती नहीं है

प्रश्नों की लहरें तरंगों से कहती
बताओ है इनसे भी दरिया निकलती?
जो अपने तरंगों में स्वयं को जलाये
कसमकस उलझे किनारों से कहती

विचारों पे परते-परत जम गई थीं
रोती अचानक क्यों घर भाग आयी?
बताओ वह बेटा हमारा कहाँ है?
जहाँ की दौलत जिसपे हमने लुटायी

हाथ बस्ता तुम्हारे, लेकिन वह कहाँ है?
बताओ-बताओ कुछ तो बोलो कहाँ है?
वह अब आंसू से माँ को बताने लगी थी
फिर पछाड़ खाकर माँ गिरने लगी थी

समझ वो न पाई की लाल अब नहीं है
बेटी बोली माँ अब तो कुछ भी नहीं है
ऊंची जाति लड़के सारे कपड़े उतारकर
विद्रोह पे भाई को मारा गला घोटकर

मेरी घण्टों तक जान में जान न रही
अपने शरीर से स्वयं की पहचान न रही
मुंह बंद करके मुझे वे ले गये उठाकर
होश आया तो भाई मिला मृत तड़पकर