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सिसकियां गांवों की / बाल गंगाधर 'बागी'

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वे महफिलें सजाते हैं, मस्तियों में शाम की
सूनी पड़ी हैं आज तक, गलियां हमारे गांव की
जब पुरवइयां हमारी, यादों को बींधती है
तब टाटियां खिसकती हैं, छप्परों से छांव की

गिरते गुलाब जल नहीं, बारिश की बूंद से
बाढ़ में बहती हैं चारपाईयां भी नाव सी
पेड़ों पे हर किसी के तो मकान नहीं होते
बाढ़ में बांध पे बसे या पगडण्डी दलान की

सदा आग के निवाले, छप्पर के फूस बनते हें
बाकी अनर्थ होती हैं, तब नींदे भी चांव की
बूढ़ी कमर नहीं झुकती, फिर धान लगे क्या
मूसल नहीं चलते, ओखल में किसी धान की

मेहमान उनके घर में, आते हैं सोच समझ के
सोना जहाँ है भूखे, दरिया में बहते नाव की
गट्ठर के गट्ठर, उनकी यादों के बंध जाते हैं
सिसकी में भूखी अंतड़ियां, रोती हैं घाव की

मज़दूरी कम पैसे में, क्यों वे लोग करते हें?
डांट और लाठियां, खाते हैं वो समाज की
भूख की आग को, चूल्हा बुझा सकता नहीं
पर भूख के तवे पे, ममता जलती है माँ की

मज़बूरी के खूंटे में, विचार बैल से चलते हैं
हैं पिसते असहाय दुखी, जेसे चक्की अनाज की
उठती गिरती बाग़ी चीख़ें ख़ामोश होती हैं
तस्वीर दिखती है, उन्हें आदमी में सांप की