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सर पे इमारत / बाल गंगाधर 'बागी'

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तुम्हें कुछ चीख़ें पुकारती हैं
जिनकी स्मरण शक्ति बाकी है
वे अपने कल को देखना चाहते थे
जो आज बनकर तुम्हारी झांकी है

बैलों और भेड़ों की ज़िन्दगी जिये हैं
और गधों की तरह सम्मान पाये हैं
अपनी ही धरा पे बंधुआ मज़दूर रहे
बेगार पसीने को, आग में बहाए हैं

उनकी ठण्डी रुह पर शोले बरसे हैं
उम्मीद की किरनों को बादल ढके हैं
और बिजलियों ने कैसे धमकाया है
धरती चीरने वाली वेदना को खाया है

अनाज के गोदाम नहीं थे उनके पास
और नाही कारखाने थे उनके पास
ईंट के भट्ठे जब घर के लिये नहीं रहे
रोटी कपड़ा मकान बिन वे कैसे रहे?

पैदा होते ही बेटा हलवाहा कहा गया हो
जनम लेते ही बेटी घसियारन बनी हो
ऐसी सामंती संस्था के वे छात्र छात्रा
क्या कभी बनेंगे इस देश के हुक्मरां1?

हल जिनकी हथेलियों से घिस गये हों
खेत के हर कण पर जिनके पद-चिन्ह हों
फसल बच्चे की तरह जिसने पैदा किया हो
जिसने विराट भारत का निर्माण किया हो

उनका नाम इतिहास के पन्नों पे नहीं
लेकिन भारत के विकास की नश में है
अनथक जो रक्त बनकर दौड़ रहा है
वह हमारे गति की बस में है

कारखानों में पसीना डीजल-सा जलता है
पेट्रोल बन गाड़ियों में प्रतिक्षण दौड़ता है
इमारतें बनी हो जिनकी छाती पर
कैसे वह बुनियाद बन ज़मीं में धंसता है?

हजारों सपने अनन्त आसमानों में खो गये
रात के चाँद तारे दिन में कहीं खो गये
सूरज बनके सदा वह आंखें चुराता रहा है
जो हमारी कला के कारण चमकता रहा