हमारी मनीषा की सबसे सुन्दर कृति है वह
अनिन्द्य सुन्दरी, अक्षत यौवना
सदैव केलि-आतुर, अक्षत कुमारी
ऋषियों, राजर्षियों, राजभोगियों को सुलभ
पृथ्वी पर नहीं देवलोक में बसती है
जब चाहे विचरण कर सकती है पृथ्वी पर
उसके बारे में सुन-पढ़-जान कर
आह्लादित होती है पृथ्वी की प्रजा
कहते हैं मानवीय सम्वेदनाओं से मुक्त होती है वह
नहीं बान्धता उसे प्रेमी अथवा सन्तति मोह
वह हमेशा गर्वोन्नत होती है
अपने सौन्दर्य, शरीर सौष्ठव और सतत कामेच्छा से युक्त
पुरुष सत्तात्मक समाज में
भोग की अक्षत परम्परा है वह
लागू नहीं होते शील के
मध्यवर्गीय मानदण्ड उसपर
न उनके साथी पर
ऋषि बना रह सकता ऋषि, तत्ववेत्ता, समाज सुधारक, सिद्धान्तकार
राजा केवल अपनी थकान मिटाता है,
वह फैसले सुना सकता दुराचार के खिलाफ
कौमार्य, यौवन
और सतत् कामेच्छा के सूत्र बेचने वाले
क्या तब भी मौजूद थे देवलोक में ?