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मुझे कोई नहीं रोकता / अबरार अहमद

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चार सू फैली चान्दनी से मुँह मोड़ कर
बे-पनाह वीरानी में, रो देने को
जब रौशनी और उम्मीद की जानिब
खुलती खिड़कियों को बन्द करने लगता है
किसी दिल-नशीन मक़ाम से कूच कर के
ठीक तरह सांस लेने से
इनकार करने लगता हूँ
मुझे कोई नहीं रोकता
तर्क करने लगता हूँ, उन जगहों को
जिन से मेरी मिटटी, नमी लेती है
बन्द दरवाजों से टकराते हुए
किसी ना-मुमकिन ख़्वाब को
रवाना हो जाता हूँ
गाते हुए परिन्दों को उड़ाकर
दरख़्तों से लिपट जाने को
महकते लिबासों और चहलक़दमी की सरसराहट से
भागने लगता हूँ
दुखन की दहलीज़ पे ढह जाने के लिए
मँज़िलों से दूर
रास्तों में उड़ता चला जाता हूँ
ख़ामोशी की जानिब
अपना सफ़र तेज़ कर देता हूँ
और एक ख़राश को
जब तेज़ धार आले से गहरा करने लगता हूँ
कोई नहीं रोकता मुझे
धुन्द में खो जाने वाले
शायद — देख सकते हैं
और सिर्फ़ फैला सकते हैं
अपनी बाहें