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दृश्यान्तर / सुरेन्द्र स्निग्ध

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सब कुछ साफ़-साफ़ दिख रहा है
चान्दनी है कि शाफ़ शफ़ाक
और यह है पूरे चान्द की रात

चाहता हूँ कि घूम आऊँ दूर तक
सड़क के बीचों-बीच
क्योंकि इसके दोनों ओर
खड़ी है सघन वृक्षों की पाँत
झुरमुट में
अस्पष्ट सा दिख रहा है कुछ
चितकबरी चान्दनी भी

सुरक्षित नहीं है अकेले चलना
इस चान्दनी में

वह जो अस्पष्ट सा हिल रहा है कुछ
प्रेमी-प्रेमिकाओं के नहीं हैं जोड़े
वे हो सकते हैं राहजनी करनेवाले लोग
छँटे हुए बदमाश या कि क्रिमिनल

सुरक्षित नहीं है अकेले चलना
इस चान्दनी में
लौट आता हूँ
अपने अस्थाई आवास में
पता नहीं कि यह कौन-सी जगह है
कौन-सा शहर

बदल गया है दृश्यालोक

हमारे परिचित
एक वामपन्थी आलोचक
(जो पहले ब्राह्मण हैं
और फिर वामपन्थी)
लक-दक खद्दर पहने

गुल-थुल शरीर वाला यह आलोचक
खोज रहा है रात बिताने की जगह

सड़क के किनारे
अचानक प्रकट होती है चौकी
उस पर मोटा तोशक
और लग गई है मसहरी
बिजली पँखा तो है नहीं
अचानक
सड़क के किनारे
बिजली के पोल में
बल्ब की जगह
टँग गया है
दो पँखोंवाला, छोटा-सा
बिजली का पँखा
और उल्टी दिशा में
वह घूम रहा है
चलो, घूम तो रहा है
इतना छोटा-पँखा
इतना मोटा शरीर

फिर बदलता है दृश्य

आलोचक महोदय
नँग-धड़ँग शरीर
गिरे-पड़े हैं सड़क के किनारे
साथ लिए
रूई धुनने वाली धुनकी
(कविता की धुनाई करनी है शायद !)
धुनकी ऐसी लग रही है
जैसे रक्षा के लिए
आलोचक महोदय ने
तान रखी हो बन्दूक

पूछता हूँ —
क्या चेले-चटिये
या कि आपके
सजातीय-सगोत्री कविगण नहीं हैं
इस जगह
क्या दलाली के पैसे भी नहीं हैं
आपके पास ?
कोई बात नहीं
चलिए मेरे ही साथ,
सुरक्षित नहीं है
सड़क पर सोना
इस पूरे चान्द की रात में
बहुत असुरक्षित है यह जगह
और यह रात
और यह पूरा चान्द

इस बार बदल गया है
आलोचक का चेहरा

अब वह है सरकारी अधिकारी
शरीर वही
चेहरा भेड़िये का

कैसे यह घटित हुआ ?
कहाँ हुआ ?
अभी मैं सोच ही रहा था
कि बदल गया फिर दृश्य
मैं पहुँचता हूँ
अपने कमरे में
वह सरकारी अधिकारी
पहले से ही विराजमान है
मेरे गाँव का एक बदमाश
कर रहा है आलोचक के साथ
गुदा मैथुन
कमरे के एक कोने में
गहरी नींद में सोया है
मेरा पन्द्रह साल का भतीजा
जो आज से करीब पन्द्रह साल पूर्व ही
मर गया था ब्लड कैंसर से

मैं लौट आता हूँ
कमरे से बाहर ।

मिल जाता है एक परिचित लड़का
कहता है —
ग़लत कमरे में घुस गए थे आप
चलिए,
अपनी मोटर साइकिल से
मैं छोड़ आता हूँ
आपको अपने गाँव

निकालता है बाईक
आता है बस स्टैण्ड
हाँ, यह बस स्टैण्ड पहचाना लगता है
यह है भवानीपुर का बस स्टैण्ड
आधी रात में भी
पसरा हुआ है स्टैण्ड का बाज़ार
पक्की सड़क के बीचों-बीच
लोग बेच रहे हैं मालदह आम
सस्ता,
एकदम सस्ता
चार रुपये किलो बिक रहा है आम ।

मैं जानना चाहता हूँ
क्यों जगा है यह बाज़ार
आधी रात में
फिर मेरे अन्दर का समूह चिल्लाता है
कि यह है पूरे चान्द की रात
छोटी-सी सैलून की दुकान
भी जगी है

जगा है भीतर
एक टेलीविजन
भारत और पाकिस्तान के बीच
क्रिकेट मैच के साथ
तो क्या,
भवानीपुर में भी बिछ गया है
मल्टी चैनल का जाल !
यह मैच तो ’स्टार‘ पर ही
आ रहा होगा —
’कोक‘ का फेंकता हुआ विज्ञापन

फिर मुन्ना कहता है —
चलिए, बाईक की हवा
चेक करवा ली है,
जल्दी से पहुँचा देता हूँ गाँव

आम बेचने वाला आदमी
जिसका चेहरा पहचाना-सा लगता है
(कई साल पहले जो
आम-गाछ से गिरकर मरा था)
कहता है —
एकपैरिया रास्ता मत जाइएगा
रास्ता ख़राब है,
थोड़ा घूमना पड़ेगा
दुर्गापुर वाली सड़क से ही जाइएगा
फिर प्रथम दृश्य
वही सड़क
दोनों किनारों से सघन वृक्षों से
घिरी सड़क
इसी सड़क से तो मैं
आता-जाता रहा हूँ
कई सौ वर्षों से
कई-कई सौ चान्द की पूरी रातों में

लेकिन आज तो
बड़े सफ़र की तैयारी में
निकला हूँ ।