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हिमागम / महेन्द्र भटनागर

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सच, अब नहीं !
सौगन्ध ले लो
अब नहीं !
अवहेलना-अवमानना
हरगिज़ नहीं !
ज्योतिर्मयी
सुखदा
सुनहरी धूप
आओ !

थपथपाओ मत,
खुले हैं
द्वार, वातायन, झरोखे सब,
उपेक्षा अब नहीं
सौगन्ध ले लो।
अब नहीं !

प्रतीक्षातुर तुम्हारा
भेंट लो;
प्रति अंग को
उत्तेजना दो,
उष्णता दो !
ओ शुभावह धूप
अंक समेट लो,
हेमाभ कर दो !

ओढ़ लूँ तुमको
बहे जब तक हिमानिल,
मन कहे तब-तक
दिवा-स्वप्निल तुम्हारे लोक में
खोया रहूँ,
जी भर दहूँ, जी भर दहूँ !
तन रश्मियाँ भर दो !

सुनहरी धूप
आओ !
अब नहीं
अवहेलना-अवमानना,
हरगिज़ नहीं !
सौगन्ध ले लो !