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प्रेम / रंजीता सिंह फ़लक

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गीली आँखों
और सूखी प्रार्थनाओं के बीच
एक समन्दर
एक सहरा और एक जज़ीरा है

प्रार्थनाएँ तपते सहरा-सी हैं
बरसों-बरस
चुपचाप
तपती रेत पर चलते हुए
मुरादों के पाँव आबला हुए जाते हैं
और
फिर सब्र का छाला फूटता है,
रिसती है
हिज्र की एक नदी
और उमड़ता है आँखों से
एक सैलाब

सब कुछ डूबने लगता है
बची रहती हैं
दो आँखें

नहीं डूबतीं
किसी नदी,
किसी समन्दर,
किसी दरिया में
वो
तैरती रहती हैं लाश की मानिन्द
और आ पहुँचती है
उस जज़ीरे पर
जहाँ प्रेम है ।