भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कभी-कभी / चन्द्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:33, 9 मई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चन्द्र |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poe...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कभी-कभी बापू की आँखों में
भयावह उदासी देखकर
इतना सहम जाता हूँ
इतना सहम जाता हूँ
कि भीतर-बाहर पसीज-पसीज कर
चुपचाप रोने लगता हूँ...
चुपचाप
और पिताजी तभी
मुझसे कहने लगते हैं
कहने लगते हैं
कि
बाबू !
ई ज़िनगी है, जिनगी
ई जिनगी में
कभी भी दुख छप्पर फाड़ के ही आता है
लेकिन बाबू !
ई जिनगी में
कभी भी सुख बहुत-बहुत कम ही आता है
बहुत-बहुत कम ही !