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तिघिरा की एक शाम (2) / महेन्द्र भटनागर

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तिघिरा के सँकरे पुल पर
नमित नयन
सहमी-सहमी
तुम !

तेज़ हवा में लहराते केश,
सुगठित अंगों को
अंकित करता
फर-फर उड़ता
कांजीवरम् की साड़ी का फैलाव,
दो फ़ुर्तीले हाथों का
कितना असफल दुराव !

हौले-हौले
चलते
नंगे गदराए गोरे पैर,
सपने जैसी
अद्भुत रँगरेली रोमांचक सैर !