Last modified on 12 मई 2019, at 23:51

हरित क्रान्ति / कुमार वीरेन्द्र

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:51, 12 मई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार वीरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

खेतों में पहले
मेंड़ों पर फिर, फिर मेंड़ों से, राह का
किनार पकड़े, बग़ीचों में उग आई है, अब मेरे दुआर, आँगन में भी
इसे न पिता, माँ न भाई ने उगाया, पर उगी है कैसी ढीठ-सी दिनाय
की भाँति फफस-फफस, इलाज नहीं दिनाय की भाँति
जबकि, पिता-माँ-भाई का अन्तर, बाह्य
जगत, टटोलो, तो ज़मीन
सिहरती है रोज़

यह कहीं मेरे रसोईघर में
न उग आए, एक और कड़ी बनकर, करता हूँ फ़िक्र
आख़िर इसे कैसे, कब और कहाँ, उखाड़ फेंकें, जो फिर न उगे, कहीं भी फेंको, उग ही आती
है, ग़ज़ब की जड़ें हैं इसकी, है ग़ज़ब की चसक, पिता-माँ-भाई समझ नहीं पा रहे, ठीक-ठीक
आजी तो लगती है एकदमे अनजान, ज़्यादा सोचती भी नहीं, बस कहती है मेरे
अन्त के दिनों में, कहाँ से आ धमकी, पत्नी, भौजी बोलती हैं, ई
तो हमरे, नइहर में भी है, जाने कितनों के नइहर
ससुराल में है यह, सुन रहे हैं कान
कितनों की उकताहट

पिता, भाई, खेतों से उखाड़
फेंकते हैं हर बार, करें क्या, गाय-भैंस भी तो सूँघती तक नहीं
अरे साँप भी गुज़रते नहीं इसके क़रीब से, पिता, भाई काटते हैं बहारना से, सूख जाने के बाद तुरत, जुटा
नहीं पाते हिम्मत जलाने की, सुन रखे हैं इसके धुएँ से टीबी हो जाती है, रगड़ से चर्मरोग, ऐ मेरे पिता, मेरे
भाई उखाड़ते हो, क्यों ऐसे हाथों से, धाँगते-फिरते हो पाँवों से ऐसे, इतनी जल्दबाज़ी भी क्या
है, जब इसके आने धाक जमाने में, लगे कितने बरस, जानते-जानते ही जानोगे
ख़त्म होना, सम्भव नहीं इसका, एक दिन में, ज़रा हाथों में दस्ताना
पाँवों में जूते तो पहन लो, जैसे ख़ाली हाथ ख़ाली
पाँव, वैसे ख़ाली दिमाग़ का
काम नहीं यह

पिता, भाई को, अब मालूम
पड़ने लगा है धीरे-धीरे, शायद जो बीज लाए गए थे, विदेशों
से बोने को, आई है उन्हीं के ज़रिए, पछताते हैं, लाए क्यों ख़रीद कर शहर से, रखे क्यों नहीं बखार में अपने
बीज, हो जाते हैं ठण्डे फिर, हमीं ने तो घूर-गोबर की उपेक्षा की, हमीं ने तो छींटीं, खादें तरह-तरह की, जिसने
बखार में ही, बीजों की, माटी-माटी कर दी उर्वरता, पर क्या था पता, अधिक अन्न उपजाने को
अथक मेहनत का फल मिलेगा, ऐसी घास के रूप में, जो तुली है बँजर करने पर
जीव-ज़मीन, घास से तो करते रहे हैं, हमेशा प्यार, होती है वह
हमारी जैसी ही, फिर इसका रूप धर, साध रहा
बैर कौन, अपना अपना नहीं लगता
लगता ही नहीं

देखो, देखो तो, कैसे हरित क्रान्ति
लिए उगी है चहुँओर, जैसे इससे और अधिक हरी, हो नहीं सकती
प्रकृति, तनिक भी, हो अन्तिम सत्य, यही यहीं, हरा होने का, मनुष्यता के भी, पर क्या हो गया है यह, मेरे गाँव
को, पाकर भी ऐसी हरित क्रान्ति, ले रहा है साँस ऐसे जैसे आक्सीजन बग़ैर, मर रहा होता ट्रक से कुचल गया बीच सड़क कोई, कौन है, जो ऐसे हरे-भरे दृश्य में, ऐसे मरता हुआ, चाहता है देखना मेरा गाँव
रख रहा है अँगुली पुरखों से पूत, पोते तक, जहाँ-जहाँ लगती है बैठकी, चर्चा वहाँ
वहाँ, कुकुरौंधा बढ़िया थी घास, लगाओ रस घाव पर, ठीक हो जाता
था, मिठइया के पत्ते पियो उबालकर, उड़नछू हो जाता
था जुलाब, मिरचइया कितना काम
आती थी सिरदर्द में

करकरवा पक जाए मुँह
चुभलाते दूर भगाए, पर जाने, ई किस मिट्टी की, धरती
जान पा रही न आदमी, कह रहे थे पिता, माँ, भाई से, एक दिन आँगन में बैठे, महकउआ, मेथिया
ऊ सब घासें अच्छी थीं, एक बार उखड़ जाने पर खेत-बग़ीचों से, कुछ समय बाद ही उग पातीं तो
उग पातीं, नहीं तो नहीं, पर इसने तो हद कर दी है, भई, एक ही खेत, जोतो चार चास
तब भी बात, पहलेवाली नहीं दिखती, कहाँ चली गई, वह राशि अनाजों
की, जो कल तक सच थी, लग रही आज झूठ, जीते जी
खुल गई है मुट्ठी, ख़ाली-ख़ाली घर से खाँसती
हुई आती है आजी, चुप्पी तोड़ते
सबकी कहती है —

‘अरे ई सरकार
कुछ सोचती नाहीं का रे, का इससे
उसकी कवनो, भाई-भवधी है’, टुकुर-टुकुर, सब-के-सब, देखने
लगते हैं आजी को, और आजी, वह तो घूरे जा रही, उस घास को
जिसे कहता है कोई — ई तो जंगली है, कोई — नहीं, ई
अँगरेज़ी है, कोई कहता — अरे नहीं, भई
नहीं, ई, ई तो अमरीकी है
अमरीकी घास !