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किन्नरों की जीत / रणजीत

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उत्तर प्रदेश के नगरनिकाय चुनावों में
कुल तीन ही किन्नर उम्मीदवार खड़े हुए
और तीनों भारी बहुमत से जीते
कमालगंज की नगर पंचायत की अध्यक्ष हुईं बिजली
वाराणसी के एक वार्ड से खड़ा किया स्वयं सपा ने
कल्लू हिंजड़े को
पर सबसे शानदार जीत रही गोरखपुर नगर के
महापौर पद पर आशादेवी उर्फ़ अमरनाथ की
निर्दलीय खड़े हुए इस हिंजड़े को हराने के लिए
सभी राजनैतिक दलों ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया
खुद मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने
घोषणा की कि वे
गोरखपुर को गोद ले रहे हैं
पर गोरखपुर की जनता ने
किसी स्थापित राजनीतिक दल की गोद में जाने के बजाय
एक हिंजड़े की बंजर गोद पसन्द की
क्या यह जनता की मसखरी थी
आशादेवी के साथ?
या मतदाता यह देखना चाहते थे कि देखें
हिंजड़े क्या करते हैं राजनेता चुने जाने के बाद?
या यह था उस नस्ल के प्रति जनता का
किसी नये कारण से उमड़ा हुआ कोई नया आकर्षण?
जो युगों से उसकी जुगुप्सा की पात्र रही है
जुगुप्सा की और अश्लील हरकतों की।
क्या जनता में उमड़ा है युगों से अपमानित इस जाति के प्रति
एक नया सम्मान?
शायद उसी के तहत उन्हें अखबारों में पुकारा जा रहा है
हिंजड़े या जनखे की जगह
एक नये सम्मानित शब्द किन्नर से।
नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है
किन्नर शब्द कभी सम्मानजनक नहीं रहा
आप्टे के शब्दकोष में देखा मैंने उसका अर्थ
किंनर यानी बुरा या विकृत पुरुष
यह ठीक है कि यह रूढ़ रहा
एक नाचने-गाने वाली ऐसी जाति के लिए
जिसके बारे में सोचा जाता था कि उसका सिर
घोड़े का था और धड़ इन्सान का
नहीं, जनता में या उनके मतदाताओं में भी
नहीं जागा है उनके प्रति कोई नया जनवादी सम्मान
वे अब भी उसी हेय दृष्टि से देखे जा रहे हैं
शायद किन्नरों को भारी मतों से विजयी बनाकर
मतदाता सिर्फ यही कहना चाहता है :
सभी नेताओं को देख लिया
नरसिंहरावों और इंदिरा गाँधियों को
अटलबिहारियों ऐर जयललिताओं को
वे एक से एक निकम्मे और नाकारा निकले
और साथ में अपने भाई-भतीजे पालने वाले भ्रष्टाचारी भी
नरों और नारियों के नाम पर नपुंसकों को चुनने से
क्या यह अच्छा नहीं होगा कि सीधे हम
नपुंसकों को ही चुन कर देखें
शायद वे ही करें इस कलिकाल में हमारा उद्धार
ज्यादा कुछ नहीं कर पाएंगे तो भी
कम से कम अपने कुनबे पालने के लिए
जन-धन की लूट तो नहीं मचाएंगे
क्योंकि उनके नहीं है कोई भाई-भतीजे
बीवी-बच्चे, नाते-रिश्तेदार
सब रिश्तों को तोड़ कर उन्होंने बजायी है ताली
देखें अशालीन ढंग से मांग कर
और अपनी नंगई से मजबूर कर
अपना पेट पालने वाले ये पेटीकोट धशरी सर्वहारा
कितना बदल पाते हैं सत्ता के स्वभाव को
कितना हो पाते हैं स्वार्थमुक्त
परिवार-निरपेक्ष, धर्म-निरपेक्ष, लिंग-निरपेक्ष
शायद उनके राज में
मर्दानगी की मार से मरी जा रही बिचारी औरतों को
कुछ राहत मिले
यौन तृप्ति की वस्तु बना दिये गये बच्चे और बच्चियाँ
कुछ बच सकें बार-बार बिकने की अपनी बेचारगी से
शायद भौंड़े नाच गानों के बल पर भीख मांगकर
अपना पेट पालने वाली इनकी अपनी बिरादरी
कुछ सम्मानजनक स्थिति पा सके इस समाज में
कुछ बढ़ सके
सत्ता में दलितों, दमितों, उपेक्षितों की हिस्सेदारी
शायद यही है वह संभावना
जिसकी तलाश में
विकल्पहीन मतदाताओं ने पकड़ी है किन्नरों की बाँह
शबनम मौसी से शुरू हुआ यह सिलसिला
देखें कब तक पहुँचता है
दिल्ली की दहलीज़ तक
और कितना बदलता है लोगों का भाग्य