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इतने रोमाण्टिक भी क्या हों / विनोद विक्रम केसी
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अब इतने रोमाण्टिक भी क्या हों
कि बारिश को आसमान के आँसू कहें
और पड़ोस के भूखे बच्चों के आँसुओं को
नाली के पानी से कम आँकें
अब इतने रोमाण्टिक भी क्या हों
कि डूबते हुए सूरज पर
लम्बी शायरी छाँटें
और रात भर खाँसती माँ की तबीयत से बेख़बर
दूसरे कमरे मे खर्राटे भरें
अब इतने रोमाण्टिक भी क्या हों
कि सर्दी मे फूल के काँपने से आँखे भर जाएँ
और शीतलहर से मरे हुए देहातियों की ख़बर तक न पढ़ें
तुम जिस तरह हो रहे हो रोमाण्टिक
उस तरह तो कविता से बहुत बदसलूकी होगी
क्रूरता जब बोलती हो इतनी मीठी जुबान मे
तो यही लगेगा हर क़ातिल को
कि क़त्ल की भी होती है अपनी एक मिठास
अब इतने रोमाण्टिक भी क्या हों
कि तिनका भर रिएलिस्टिक भी न हो पाएँ ।