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ओह! चाँद / कविता भट्ट
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चाँद हथेली पर उग नहीं सका
सपनों वाली निशा से थी आशा
अश्रु-जल से बहुत सींची धरा
रेखाओं की मिट्टी न थी उर्वरा
खोद डाली बीहड़ की बाधा
मरु में परिश्रम अथाह बोया
रानियों के कारागृह में है या
मेरी हथेली सच में बंजर क्या
समय से संघर्ष है रेखाओं का
स्वप्न- निशा न आएगी है पता
किन्तु जाने क्यों मन नहीं मानता
हथेली पर चाँद उगाना ही चाहता
शुभकामनाएँ- सपने देखते रहना
निष्ठा से चाँद उगेगा- चाँदनी देगा
कल्पना पर तो वश है ही तुम्हारा
ओह! चाँद असीम चाँदनी लाया
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