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माँ - 2 / अंजना टंडन

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जब नहीं रहेगी माँ
तो मत ढूँढना
उसे इस घर में,

छूट सकता है माँ से घर
कहती रही वो भी उम्र भर
पर
हर बार अटकी
हूक लिए लौटी
बेतरतीब समानों और मकड़ी के जालों में
सूखे बगीचे और टब भर डूबे कपड़ों में
अनदेखा भी किया
पर माँ का मन जो ठहरा
वहीं कहीं छूटा,

अब जब
हो चुकेगें नेत्रदान
देह होगी कहीं चीडफाड़ की मेज पर
ठिठौली करते छात्रों के मध्य
और लेकर
वाजिब नावजिब हसरतें
निकल पड़ेगी रूह
मोक्ष से पहले
शेष इच्छापूर्ति के लिए,

नहीं लौट पाएगी वो
फिर इस आँगन
चढ़ा कर नैवेध
अपनी स्नेही चंद्रिका का,

आँख सूखी रख
जतन से
खिंची वर्जनाओं को मिटाना,

क्यूँकि टपका एक आँसू भी
कुंडी पर फिर जंग लगा सकता है।