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प्रेम - 2 / अंजना टंडन

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दरअसल प्रेम
पैर की एक खोई हुई चप्पल है
जिसे तुम कब से तलाश रहे हो,

आँगन, कोठार, पिछवाड़े , द्वार
तड़पते रहते दुखते तलवों के साथ
फिसलन के अंधेरे और सँभलने के पार
हर समय बस दिमाग में रहती वो तलाश,

मन ही मन उस मनहूस पल को कोसते हो
बेदम से रास्तों पर कंकर उछालते
बेख्याली में जलते अंगार पर चलते
बेदम हो बदहाल होकर कहीं पहुँचते हो,

तलवों के नक्शों से पते पूँछते हो
कहीं निकल कर कहीं और पहुँचते हो
ध्यान में मिलावट गर हो थोड़ी ही सही
सामने देख कर भी नहीं देखते हो,

अंतत एक दिन तुम उसे पा लेते हो
रोकी रूलाई के टूटने से पहले
फुसफुसाकर अपने होठो से लगा
हजार दुआओं के बाद पैर में डालते हो,

सनद रहे
खोई चप्पल की खोज
अक्सर जिदंगी से लम्बी हो जाती है....।