भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुद्धि, मन और देह / अंजना टंडन

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:26, 19 मई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अंजना टंडन |अनुवादक= }} {{KKCatKavita}} <poem> मन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन लिप्त हुआ
देह पिछे भागी
बुद्धि जड़ ही रही,

बुद्धि ने बोला
मन को टोका
देह अधरझूल रही,

देह लौटने लगी
बुद्धि को चुप करा
मन फिर पलटा,

बुद्धि ने तर्क लगाया
मन ने छल दिखाया
देह कश्मकश में रही,

समय निकलता रहा
खेल चलता रहा
देह भटकती रही,

मन अपनी करता
बुद्धि उपालंभ भरती
देह तरसती रहती,

मन ने मोह छोड़ा
बुद्धि ने नाता तोड़ा
देह दर्द सहती रही,

मन खाली हुआ
बुद्धि बंजर हुई
देह रेत हुई,

आखिर तक
जाते जाते भी देह जलती रही,

बोध हँसता रहा...।