होता है
अन्तत: विदा घर से
वह पिछला घर
शीतल आशीष भरा
एक कुआँ छोड़कर ।
चाह तो यही थी
वह जाए
पर उसका कोई हिस्सा
ठहरे कुछ दिन
चूने की परतों में
बाबा माँ बाप रहें
बच्चे लिखते रहें
ककहरे कुछ दिन ।
लेकिन वह समझ गया
वक्त की नज़ाकत को
सिमटा फिर
हाथ पाँव मोड़कर ।
चली कुछ दिनों तक
पिछले घर की
अगली यात्रा की
तैयारी पुरज़ोर
मलवा ओ माल
सब समेटा
कुछ बासी कैलेण्डर
कुछ फ्रेम काँच टूटे
सब कुछ लिया बटोर ।
एक मूर्ति का टुकड़ा
था जो भगवान कभी
जाता है
सब कृपा निचोड़ कर ।
कुएँ का तिलस्म
कौन समझे
पहले तो गरमी के
सूखे में
दिख जाता था तल
लेकिन अब रहता
आकण्ठ लबालब हरदम
छत पर चढ़ जाता है
घुमड़-घुमड़ गाता है
बनकर बादल
पितरों का जलतर्पण ।
क्या कोई विनियोजन
लौटा है ब्याज जोड़कर ।