भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फागुनों की धूप ने / हरीश निगम
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:44, 20 मई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरीश निगम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatNavgee...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
गुनगुनी
बातें लिखीं फिर
फागुनों की धूप ने ।
देह
तारों-सी बजी
कुछ राग बिखरे
तितलियों के
फूल के
हैं रंग निखरे
गन्ध-सौगातें
लिखीं फिर
फागुनों की धूप ने ।
मन उड़ा
बन-पाखियों-सा
नए अम्बर
नेह की
शहनाइयों के
चले मन्तर
स्वप्न-बारातें
लिखीं फिर
फागुनों की धूप ने ।
शब्द पाखी
गीत के
आकाश पहुँचे
पतझड़ों के
रास्ते
मधुमास पहुँचे,
जागती रातें
लिखीं फिर
फागुनों की धूप ने ।