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अगर्चे कहने को हमसायगी है / सुरेश चन्द्र शौक़
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अगर्चे कहने को हमसायगी है
यहाँ हर कोई लेकिन अजनबी है
मुहब्बत,सादगी महमाँ—नवाज़ी
हमारे घर की आराइश यही है
ज़रूरी तो नहीं बोले ज़बाँ ही
ख़मोशी भी, नज़र भी बोलती है
जो है जाँ—सोज़ भी और कैफ़—जा भी
इक ऐसी आग सीने में लगी है
अभी तक शब के सन्नाटे में अक्सर
तिरी आवाज़ दिल में गूँजती है
इमारत तो बहुत ऊँची है बेशक
मगर बुनियाद क़द्रे खोखली है
वही हंगामा—खेज़ी ‘शौक़ दिल की
वही हम हैं वही आवारगी है.-
हमसायगी=पड़ोस; महमाँ—नवाज़ी= अतिथी सत्कार; आराइश=सज्जा;जाँ—सोज़=जलाने वाली;कैफ़—जाँ =मादक ;हंगामा—ख़ेज़ी=कोलाहल