मुझको सुननी हैं / सुषमा गुप्ता
मुझको अपने होने को जुनूँ की हद तक मिटाना है ।
मुझे जीने हैं किरदार बहुत सारे
और नकार देना है मेरा मुझ जैसा होने को।
अपनी आँखों में रखनी है मुझे हज़ार आँखे।
उन सबकी आँखें ,जो धोखा देते भी हैं, धोखा खाते भी हैं।
जो प्रेम करते भी हैं और बेज़ार भी हो जाते हैं।
जो लुटते हैं शिद्दत से , जो शिद्दत से लूट भी जाते हैं ।
मुझको उन सबके दिल रखने हैं अपने सीने में ।
मुझको सुननी हैं हज़ार-हा धडकनें,
मुझको सुननी हैं सर्द आहें और ठंडी चीखें ।
मुझको जलाने हैं अपने ही माँस के टुकड़े , मुझको सेंकना हैं उन पर नरम हाथों की दिलफरेब लकीरों को ।
मेरे मन का तार मेरी नाभि से नहीं जुड़ता, वो जुड़ता है मेरे पैर के तलवे के तिल से कहीं ।
मेरे जिस्म की रगों से लहू निकालो ज़रा , उनमें ग़मज़दा हारो का बयां बहने दो ।
मुझको बस मेरे ही जैसा नहीं रहना,
मेरे अंदर हज़ार-हा किरदारों को रहने दो
मुझको मेरे ही भीतर तक़सीम हो जाना है
मुझको इस गंध की स्याही से हरफ़ बनाने दो।