क्या-क्या नहीं सीखा था मैंने
चाय बनाते-बनाते
सब से पहले यही सीखा था
मजमे लगाने की कला
फिर सीखी हाथ चमकाकर
बोलने की शैली
चाय बनाते-बनाते ही जाना था मैंने
जब पानी और चीनी में अन्तर है
तो
दो कौमों में भी है बहुत फ़र्क
अलग है भाषा और लिपि
तो वे एक कैसे हो सकते हैं
फिर ये भी सीखा
धर्म की बुनियाद से ही होगा विकास मुल्क़ का
सीखी मैंने चेहरे पर मुखौटे लगाने की कला
यह भी सीखा मैंने
ज़रूरत पड़ने पर गिरगिट की तरह रँग भी बदला जा सकता है
चाय बनाते हुए ही मैंने सीखा उसे कैसे बेचा भी जाता है
फिर पैकेजिंग की कला में निष्णात हो गया
नाम बदलकर उसे बेचने में उस्ताद हो गया
चाय बनाते-बनाते मानवता और ईमानदारी पर भाषण देना भी सीख गया
सीख लिया कि वक़्त पड़ने पर
कैसे अपना उल्लू सीधा किया जाता है
और बहुत कुछ सीखा
जिसकी एक लम्बी फेहरिस्त जारी भी की जा सकती है
चाय बनाते-बनाते देश को बेचने की तरक़ीब भी सीख गया मैं
अमीरों के विकास को
ग़रीबों के विकास की शक़्ल में पेश करना भी सीख गया
चाय बनाते हुए हिन्दी तो सीखी ही
प्रोम्टर पर अँग्रेज़ी पढ़ना भी सीख लिया मैंने
टिकट बाँटने का गुर भी सीखा
सबकुछ सीख लिया मैंने
पर एक चीज़ नहीं सीख पाया
कि जिसके कारण लोग धीरे-धीरे मेरी हकीकत जानने लगे हैं
मेरी कलई अब खुलने लगी है
पर चुनाव जीतने की कला से
मुझे नहीं कर सकता कोई वंचित
सच की तरह झूठ बोलने की महारत से
मैं बदल सकता हूँ इस देश को
जिसकी कल्पना आपने नहीं की होगी कभी
लेकिन जब तक तुम लोग करोगे इन्तज़ार
कि किस तरह उतरता है मेरा जादू
तब तक चाय की चुस्कियों में फैल चुका होगा ज़हर ।