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जीवन: एक अनुभूति / महेन्द्र भटनागर
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बिखरता जा रहा सब कुछ
सिमटता कुछ नहीं !
ज़िन्दगी :
एक बेतरतीब सूने बंद कमरे की तरह,
दूर सिकता पर पड़े तल-भग्न बजरे की तरह,
हर तरफ़ से कस रहीं गाँठें
सुलझता कुछ नहीं !
ज़िन्दगी क्या ?
धूमकेतन-सी अवांछित
जानकी-सी त्रस्त लांछित,
किस तरह हो संतरण
भारी भँवर, भारी भँवर !
हो प्रफुल्लित किस तरह बेचैन मन
तापित लहर, शापित लहर !
ज़िन्दगी
बदरंग केनवस की तरह
धूल की परतें लपेटे
किचकिचाहट से भरी,
स्वप्नवत है
वाटिका पुष्पित हरी !
हर पक्ष भावी का भटकता है
सँभलता कुछ नहीं !
पर, जी रहा हूँ
आग पर शय्या बिछाये !
पर, जी रहा हूँ
शीश पर पर्वत उठाये !
पर, जी रहा हूँ
कटु हलाहल कंठ का गहना बनाये !
ज़िन्दगी में बस
जटिलता ही जटिलता है
सरलता कुछ नहीं !