जीवन का आरम्भ:
फिर से।
उसमें सन्दर्भ न हो,
पूर्वा पर कोई संबंध न हो !
क्या वर्तमान को गत क्षण प्रदेय ?
जब दुष्कर पा लेना जीवन का प्रमेय ?
जीवन: नहीं पहेली ?
उसका अर्थ सरल हो,
उसकी भाषा प्रांजल हो,
उसमें वांछित
कोई अन्तर-कथा नहीं,
रिसते घावों की सोयी व्यथा नहीं !
जितना खोजोगे: भटकोगे,
जितनी संगति जोड़ोगे उलझोगे !
आगत पर
बेचैनी और उदासी का दामन ?
आस्था के शीश महल पर
संदेहों के पाहन ?
नहीं, नहीं !