भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नाटक का नायक / अरविन्द पासवान

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:41, 22 जून 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरविन्द पासवान |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रात सपने में
रिहर्सल करते दिखा
नाटक का नायक

रोज़ की तरह
भरे नहीं थे रिहर्सल कक्ष
नाटक के पात्रों से

इसलिए

नाटक के नायक की आवाज
साफ-साफ सुनायी पड़ रही थी
मराण्डी की माँ के कानों में
रिहर्सल कक्ष की खिड़की से बाहर
जहाँ माँ का बसेरा था

माँ सत्तर के पार
फिर भी महसूस करती
जमाने के सच
अपनी आंखों और कानों से
निरंतर
निर्बाध

नाटक का नायक
जोर-जोर से चिल्लाकर
बोल रहा था --अब कुछ भी नहीं सुरक्षित इस जहाँ में
बाज़ार ने बेच दिया दुनिया से
प्रेम और स्नेह
किससे लगाएँ दिल अपना
किससे फिर नेह

लाभ और हानि के चक्र में
फँसी है दुनिया यह गोल
बिक रही ममता मिट्टी के मोल
सबके अपने राग
सबके अपने बोल

वे बेच रहे
जंगल, जमीर और माटी
दुनिया से गायब कर रहे अपनी ही थाती

इसी बीच

नाटक की नायिका आई
जोर से दरवाजे की घंटी बजाई

कुछ पल बाद
माँ बुदबुदाई--

इनसे तो अच्छे
हमारे ही पुरखे थे
अपढ़, अज्ञानी
जिन्होंने बचाया
जंगल, ज़मीन और पानी |

उचट गयी नींद मेरी
तेरे ही सपने से
होश में आओ ओ दिलजानी
हँसकर बोली मेरी प्रिया रानी