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सुनो बाबू... / विवेक चतुर्वेदी

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जो ये बूढ़ा मजदूर
तोड़ रहा दीवार
देखता हूँ
सुलगा रहा है तुम्हारी ही तरह बीड़ी
चमकते लौ में मूँछ के बाल
वैसी ही तो घनी झुर्रियाँ
पोपला मुँह

तुम्हारी ही तरह उसने
भीतरी भरोसे से देखा
जरा ठहरकर
और तोड़ कर रख दिया
हठी कांक्रीट

दोपहर...तुम्हारी ही तरह
देर तक हाथ से
मसलता रहा रोटी
पानी चुल्लु से पिया

धीर दिया तुम्हारी ही तरह
कि मैं हूँ तो सिरजेगा
सब काम ठीक...
 
अनायास मन पहुंच गया
उस कोठरी में
जहाँ तुम लेटे थे
मूँज की खाट में आखिरी रात
अँधेरे में गुम हो रही थी सांस
खिड़की से झाँक रही थी
एक काली बिल्ली

खड़े थे सब बोझिल सर झुकाए...
घुटी चुप चीर निकल पड़ी थी मेरी हूक
तो आँख खोल तुम कह उठे थे डपटकर
रोता क्यों है बे...मैं नहीं जाऊंगा कँही
और मूँद ली थी आँख...

बाबू...लगा आज
तुमने ठीक ही तो कहा था...
सुनो बाबू...