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प्रेम / कुमार मंगलम
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हवा चली है पुरवाई
और महक उठा है कमरा
रजनीगंधा के सुगंध से
पूरब की तुम थी
और जब भी बहती है पुरवा
तुम्हारी देह गंध को महसूस करता हूँ
2
मेरे कमरे में
मेरी पत्नी ने गुलदान में रख दी है रजनीगंधा
रजनीगंधा के फूल जैसे आंखें हो तुम्हारी
उसे देखता हूँ तो लगता है
उनमें कुछ अनुत्तरित सवाल हैं
जिनके जबाब मेरे पास है
3
रजनीगंधा की फूल
मेरे मन को सहलाती हैं
और
याद आता है वो पल
जब तुम्हारी उंगलियां मेरे बालों को सहलाती थी
4
प्रेम के सबसे अकेले क्षण में
जब हम केलिरत थे
लाज छोड़ सिमट गई थी तुम मुझ में
तुम्हारे उन्नत उरोजों पर
फूलों की पंखुड़िया चिपकी रह गयी थी.