Last modified on 29 जून 2019, at 00:35

पीर है ठहरी / रंजना गुप्ता

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:35, 29 जून 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रंजना गुप्ता |अनुवादक= |संग्रह= }} {{K...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पीर है ठहरी ह्रदय में जाँचती
द्वन्द या दुविधा दृगों से बाँचती

आस के उत्कल बसन्ती थे कभी
रात ठहरी है भुजाओं में अभी
श्वास में खँजर
हवाएँ काँपतीं

प्रीत के पन्ने सभी निकले फटे
घाव थे कल तक दबे वे सब खुले
पट्टियाँ फिर भी
व्यथाएँ बान्धतीं

रोकती मुझको मेरी ही मर्ज़ियाँ
दौड़ती है पसलियों में बर्छियाँ
दस्तकें फिर भी
कहा ना मानतीं

बँसवट तो है सुगन्धों से लदे
हम कहीं गहरे कुएँ में थे धँसे
दर्द कितना है
ये कैसे नापतीं