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बौने होते गीत / रंजना गुप्ता

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शब्दों के कँजूस कहार
जब नहीं ढो पाते
सम्वेदना की पालकी
तब गीत ठूँठ हो जाते हैं
और कविता की ज़मीन बँजर
हो जाती है
 
मगर निरँकुश दर्द की उद्दाम
बिछलन को रोक कर
हमे एक बान्ध बनाना ही होगा
वरना कतरा-कतरा बहती नदी रोक पाएगी
अपने अजन्मे शिशु के गर्भपात को

नदी का / जंगल का होना
हमारे होने से भी ज़्यादा ज़रूरी है
हमारी पीढ़ियों का ज़िक्र
तारीख़ों में तब्दील हो
उससे पहले
हमे अपनी सम्वेदना, अपना दर्द, अपना अंश
बचाना ही होगा

निपटना होगा
उन मनहूस दुराशाओं, दुरभिसन्धियों से
जो हवा पानी, नदी, जँगल, ज़मीन और पहाड़
सबके ख़िलाफ़ लामबन्द हो रही है