नदी के किनारे जोड़ती
एक पुलिया से चलकर,
वृक्ष-कतारों के झुरमुट
वहीं है मेरा पुराना घर
मिट्टी और पत्थरों की
खुरदुरी दीवारों के ऊपर,
पठालियों से छत है बनी
लकड़ी-जंगला उस पर
घर के किसी कोने में 
उसी जंगले से सटकर,
 बैठी होगी आँखें गड़ाए 
ओढ़कर वह अस्थि-पंजर
घने पेड़ों के बीच निरन्तर 
व्याकुल हो मन डोलता है
पाँखले वाली बूढ़ी औरतों को 
सुनता और कुछ बोलता है
कुछ याद-सी है- धुंधली 
बुराँस-चीड़-बाँज-अँयार 
बूढ़ी आँखें जो ज़ोर देकर,
पिघल आती होंगी गालों पर
चूल्हे से लग पूछती होंगी 
पता दिल्ली की सँकरी गलियों का 
और रोटी की खातिर भटकते
गुम अपने बहू और बेटे का  
गढ़वाली-शब्दार्थ :
पठालि़यों-  पत्थर की स्लेटें, जो छत पर लगती हैं, 
पाँखले- बर्फीले ठंडे हिमालयी क्षेत्र में महिलाओं का पहनावा, जो ऊनी कम्बल से निर्मित होता है। 
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