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बचा प्रमेय न कोई / राम सेंगर

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वक़्त बहुत आगे उड़ भागा ।

आने-जाने की
कोई प्रज्ञप्ति न पाकर
निर्विकार सन्तुष्ट
दाद ही रहे खुजाते ।
फलितार्थों में
परिवर्तन की हवा न दीखी
चहक-बहक में
रहे ख़ामख़्वा'
गाल बजाते ।
फर्राटा हँसता निकल गया
मूल्य-भावना, सब कुछ लाँघा ।
वक़्त बहुत आगे उड़ भागा ।

फ़ब्ती कसते रहे
और पर, आँख तरेरे
अपनी जड़ता के
गुरूर को
कभी न तोड़ा ।
रीते को
परिपूर्ण बता कर
तर्क उछाले
दिशाधुन्ध में
दौड़ाया
नीयत का घोड़ा ।
व्यँजक सब कह गया अचाहे
फिर भी कोई बोध न जागा ।
वक़्त बहुत आगे उड़ भागा ।

रच-रच करके ढोंग
भुनाया दुरवस्था को
बचा प्रमेय न कोई
हैं बदगुमाँ निठल्ले ।
जब देखो तब
पानदान खोलें अतीत का
कहाँ सुनाई दें
ऐसे में
गति के हल्ले ।
लैस न रहे चुनौती के ढब
धरे हाथ पर हाथ अभागा ।
वक़्त बहुत आगे उड़ भागा ।