भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भाई हो कहांँ / विनय मिश्र

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:40, 6 जुलाई 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खत न कोई बात
भाई हो कहांँ

बहुत ऊंँची है हवेली
बहुत ऊंँचे लोग
है अकेलेपन का लेकिन
हर किसी को रोग
हर तरफ हैं
मौत के हालात
भाई हो कहांँ

दिन, शहर की हलचलों में
हो गया नीलाम
हादसों में डूबती है
ज़िन्दगी की शाम
सिर्फ आंँसू ही मिले
सौगात
भाई हो कहांँ

भाषणों में सभ्यता की
बस दुहाई है
एक बित्ता धूप की
खातिर लड़ाई है
कर रहे अपने ही
भीतर घात
भाई हो कहांँ ।