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एक मित्र की प्रेमिका के लिए / विनोद विट्ठल

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काम में लेने के तरीक़े से बेखबर होकर भी
आग, पत्थर, लोहे और लकड़ी-सी तुम थी
पहिए-सी तुम तब भी लुढ़क सकती थी
फ़र्क़ प्रेम-पत्र की शक़्ल में धरती का घूर्णन था दिन-रात लाने वाला
वरना दिन-रात तो थे ही

माना उन दिनों नहीं था विज्ञान
आदमी ने परिन्दों के पर नहीं चुराए थे
मछलियों के जाली पँख भी नहीं बना पाया था

मित्र के मना करने के बावजूद बताता हूँ
नदी के पास तुम्हारी मुस्कुराती फ़ोटो है
हवाओं ने तुम्हारी आवाज़ को टेप कर रखा है

क्या फ़र्क़ पड़ता है सम्बोधनों का इस समय में
जबकि मैं आश्वस्त हूँ
प्रेम, भूख और नीन्द के बारे में

वास्कोडीगामा से बड़े हैं चन्दा मामा
दिन-ब-दिन छोटी और एक-सी होती इस दुनिया में
मुश्किल होगा मेरे मित्र की गरम साँसों से बचना
तपे चूल्हे के पास बेली पड़ी रोटी की तरह ।