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शृँखला / सुनीता शानू
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विचारों की शृँखला
टूटती ही नही
एक आता है एक जाता है
लड़ते रहते हैं
अपने ही वजूद से
दिन भर
और
विचारों का आना-जाना
पीछा नही छोड़ता
रात भर ।
स्वप्न में भी
पिघलते रहते हैं
मोम की तरह
और नींद खुलने पर
हावी हो जाता है
एक नया विचार
पूरे दिन की
कशमकश में
ताकतवर जीत जाता है —
वक़ीलों की
झूठी सच्ची दलीलों की तरह ।
आत्मा करती है विरोध
सरकारी वक़ील की तरह
सबूतों के अभाव में
दिन-भर की लड़ी
थकी माँदी निर्बल आत्मा से
जीत जाती हैं
झूठी बेबुनियाद दलीलें ।
जैसे बीमारी के कीटाणु
भक्षण कर लेते हैं
बीमार शरीर का ही —
और
मनोविकारों से पीड़ित रोगी
दिमाग का सन्तुलन खोकर
ख़ुद को पाते है...
शून्य में