अविरल धार कहूँ मैं / अनामिका सिंह 'अना'
जग सरि में कल-कल बहती मृदु, अविरल धार कहूँ मैं।
दिया जन्म शब्दों में कैसे, नत आभार कहूँ मैं॥
अद्भुत होगा पल वह जब मैं, मातु गर्भ में आयी।
माँस पिंड ने मातु रक्त की, सीकर-सीकर पायी॥
निज लोहू से सींच-सींच कर, लघु आकार बनाया।
विहंस गर्भ में इस सृष्टि का, माँ ने भार उठाया॥
परिधि अपरिमित है नेहिल वह, अपरंपार कहूँ मैं।
दिया जन्म शब्दों में कैसे, नत आभार कहूँ मैं॥
बंद मुट्ठियाँ नयन अधमुँदे, थी दुनिया में आयी।
अद्भुत मातु अलौकिक आभा, इर्द गिर्द निज पायी॥
सुनकर मेरी सिसकी हिचकी, माँ चौके से भागी।
कभी छींक आयी तो माई, रात-रात भर जागी॥
अगणित हैं उपकार तुम्हारे, उर उद्गार कहूँ मैं।
दिया जन्म शब्दों में कैसे, नत आभार कहूँ मैं॥
पापा जी की पकड़ उंँगलियाँ, डग मग पाँव धरे थे।
आलिंगन में उनके जग के, अवगुण रहे परे थे॥
घुटनों-घुटनों चलता शैशव, जब पैरों पर आया।
एक सुबह शाला में खुद को, तात संग था पाया॥
था उद्देश्य जगत में कैसे, दो-दो चार कहूँ मैं।
दिया जन्म शब्दों में कैसे, नत आभार कहूँ मैं॥
चंपक नंदन लोटपोट से, भर डालीं अल्मारी।
पंचतंत्र विज्ञान प्रगति की, चित्र कथायें प्यारी॥
शुभता का संदेश छपा था, पाठ वही पढ़वाया।
कोंपल पनपी देख-रेख में, सम बरगद घन छाया॥
मन के रोगों का थे पापा, हर उपचार कहूँ मैं।
दिया जन्म शब्दों में कैसे, नत आभार कहूँ मैं॥
बिछुड़ गया वह शैशव प्यारा, बिछुड़े बाग-बगीचे।
अतुलित नेह जहाँ मिलता था वृहद छाँव के नीचे॥
दावानल सम यह जग लगता, खोयी शीतल छाया।
देखूँ तो मुझको मेरा ही, साया लगे पराया॥
माँ पापा। मेरी श्वासों की, लय आधार कहूँ मैं।
दिया जन्म शब्दों में कैसे, नत आभार कहूँ मैं॥