अभी भी रात है / मणिभूषण सिंह
अभी भी रात है।
जरा सा प्रकाश है और बाकी सब अंधकार है।
बोध की रोशनी इतनी मद्धिम हो चुकी है कि
अँधेरे के विश्व में
बल्ब भर का उजाला
बता भी नहीं पाता कि
नींद आ रही है या रास्तों में खो गयी है।
कौन चीजों को महसूस करता है इन दिनों?
बिस्किट के टुकड़े बिछाकर
राष्ट्रवाद की चादर पीता है।
सूखी हुई प्यालियों को ओढ़कर
सिगरेट की रोशनी में चाय पढ़ता है।
तम्बाकू को नींद भी नहीं आती।
अँधेरे की कव्वाली में रात सुनता है।
सो जाने पर नात बुनता है।
हमारी दुनिया कहाँ है?
आपकी तो खैर जेब ही में धरी है।
हाँ, उनकी दुनिया बिल्कुल इस दुनिया से मेल नहीं खाती।
क्योंकि अभी रात है।
और चाहे तुम कितनी ही उजास भर लो,
अँधेरा पड़ा ही रहेगा
और दृष्टिहीन निजी संसारों के फूले हुए गुब्बारे
आपस में टकराते ही रहेंगे।
उन गुब्बारों की आपसी रगड़ से पैदा होंगी चीखें,
और बमों के धमाकों जैसे उनके फटने का स्वर
गूँजेगा प्रसुप्त और निश्चेतन संसार में
जहाँ अभी रात है
और रात अँधेरे के बिना नहीं होती।
दिन का दस्तूर अलग है।
वहाँ उजाले का हाथ थामे अँधेरा भी चला करता है
मगर रात का आलम बिल्कुल अलग है,
यहाँ अँधेरे की भी देह होती है
जिसकी आँखों का रंग सफेद और चेहरा सियाह होता है।
मन सब पर फैला होता है
और देह को इतनी नींद चढ़ी होती है
कि उसे वही देख पाता है
जो असल में कुछ नहीं देख पाता है।
गाढ़ा अँधेरा हो जाता है।